ईश्वरीय संगीत और लय से संजोए गए मानव जीवन की धवल कांति से परिपूर्ण संपूर्ण संस्कृत वांग्मय रूपी विशाल सागर भारतीय जीवन दर्शन की उदात्त गरिमा से आलोकित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। कहते हैं उच्च कोटि का कवि एक महान दार्शनिक भी होता है शायद इसीलिए महानतम कवि एवं श्रेष्ठतम दार्शनिकों द्वारा सुजन किए गए संस्कृत वांग्मय में अध्यात्म की ऊंचाइयों को छूने वाले तथा अंतरात्मा की गहराई में अवगाहन करने वाले ऐसे जीवन दर्शन का साक्षात्कार होता है जो अन्यत्र दुर्लभ है
दर्शन शब्द संस्कृत की दृश धातु से दृश्यते अनैन इति दर्शनम् अर्थ का द्योतक है अर्थात जिसके द्वारा देखा जाए वह दर्शन है। अपने व्यापक अर्थ में तो अखिल ब्रह्मांड एवं सृष्टि के रचयिता तथा संपूर्ण आध्यात्मिक तत्वों का साक्षात्कार करा देने वाला ही दर्शन है। परंतु यहां पर जब हम जीवन दर्शन की बात करते हैं तो इसका तात्पर्य है जीवन के प्रति दृष्टिकोण या जीवन जीने का ढंग अर्थात जीवन को व्यक्ति किस ढंग से जीना चाहता है या जीवन के प्रति उसका क्या दृष्टिकोण है वही उसका जीवन दर्शन कहा जाएगा। संस्कृत वांग्मय में जिस प्रकार के जीवन दर्शन का विश्लेषण किया गया है उसका आदर्श देश और काल की सीमाओं को पार कर अनंत काल से आज तक भी संपूर्ण विश्व जगत के लिए अनुकरणीय कहा जा सकता है। यहां जीवन दर्शन में त्याग और भोग का जैसा अभूतपूर्व समन्वय दर्शाया गया है वैसा संभवत किसी भी अन्य देश की सामाजिक व्यवस्था में नहीं है। संस्कृत वांग्मय में निहित जीवन दर्शन मानो त्याग और वैराग्य की जाहनवी अवगाहन कर निखार पा गया है और यही कारण है कि उसकी नित्य नूतनता आज भी विश्व के लोगों को बरबस ही अपनी और आकर्षित कर लेती है यहां जीवन भोग की नहीं अपितु योग की वस्तु है। एकोहम बहु श्याम की भावना के अनुसार हम सभी का जीवन ब्रह्म रूप ही है। अतः हमारी सामाजिक व्यवस्था तथा जीवन दर्शन भी ब्रह्म के अनुरूप ही होना चाहिए । संस्कृत वांग्मय के कठोपनिषद मैं जीवन का आदर्श इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है
ओम सह नौ अवतू। सह नौ भुनक्तु। सहवीर्यम करवा वहै ।
तेजस्विनौ अवधीतम अस्तु। मां विदि,षा वहै( कठोपनिषद)।
इसी आदर्श के कारण ही हम वसुधैव कुटुंबकम की पवित्र एवं उदार भावना को आत्मसात करने में सक्षम हो सके। त्याग परोपकार और सह अस्तित्व की दूरदर्शिता से समन्वित यह मर्यादा और व्यवस्था निश्चय ही कितनी पवित्र कितने सात्विक तथा कितनी महान रही होगी इसका हनुमान करपाना वर्तमान में कठिन न होगा इसी मर्यादित व्यवस्था का नाम था-- वर्णाश्रम व्यवस्था। आश्रम व्यवस्था का संबंध मानव के व्यक्तिगत जीवन के साथ था और वर्ण व्यवस्था का संबंध था सामाजिक जीवन के साथ। आश्रमों की व्यवस्था में मानव जीवन को चार भागों में बांट कर अभ्युदय के उत्कर्ष पर पहुंचने के लिए 4 सीढ़ियां बना दी गई थी। आयु की न्यूनतम अवधि 100 वर्ष मानकर प्रथम भाग को ब्रह्मचर्य द्वितीय भाग को गृहस्थ तृतीय को वानप्रस्थ और चतुर्थ को सन्यास आश्रम नाम देकर चारों के लिए 25-25 वर्ष की अवधि नियत कर दी गई थी। इसी प्रकार समाज को भी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र उन चार वर्णों में बांटा गया था। आश्रमों में व्यक्तिगत जीवन की दृष्टि से और वर्णों में सामाजिक दृष्टि से जो जो कर्म कर्तव्य अथवा जिम्मेदारियां सौंपी गई थी उनका मूल मंत्र यही त्यागमय भोग का आधार ही था जिस से भोग और त्याग से समन्वित होकर मानव देव बन सके। संस्कृत वांग्मय में निहित यह वर्णाश्रम व्यवस्था वस्तुतः जीवन की क्रमोन्नति का सर्वोत्कृष्ट साधन है। सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरु शिष्य के व्यवहार की उत्कृष्टता और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर ऊर्धव रेतत्व की प्राप्ति का आदर्श स्थापित किया गया है। आचार्य मनु द्वारा निर्धारित ब्रह्मचारी के कर्तव्य व नियम सर्व विदित ही हैं । गृहस्थ आश्रम में पति पत्नी पिता-पुत्र लघु जेष्ठ भ्राता आदि के आदर्श व्यवहार पत्नी का पतिव्रत धर्म सतीत्व की श्रेष्ठता पत्नी का गृह लक्ष्मी रूप में सम्मान तथा पुत्र के लिए मातृ देवो भव पितृ देवो भव का उपदेश आदि विशेषताओं के कारण है इसे उन्नत व श्रेष्ठ आश्रमों का आधार माना गया है और सभी को अपने अपने कर्मों का यथोचित पालन करने का निर्देश दिया गया है। भगवान श्री कृष्ण स्वयं श्रीमद भगवत गीता में कहते हैं
स,वे स,वे कर्मण्यभीरता: संसिद्धिम लभते नर:।
गृहस्थ आश्रम में नाना प्रकार के व्यवहार संपादन करते हुए मनुष्य की बुद्धि प्राय: सांसारिक अधिक हो जाती है इसीलिए जगत प्रपंच से हटकर त्याग वैराग्य और तब के तेज से बुद्धि कलमष को हटाकर परमानंद मय आत्म तत्व ब्रह्मतव को प्राप्त करने के उद्देश्य से ही जीवन की तृतीय अवस्था में अधिकार अनुसार वानप्रस्थ आश्रम की ओर और चतुर्थ अवस्था में संयास आश्रम की व्यवस्था की गई है। इस आश्रम व्यवस्था में व्यावहारिक और परमार्थिक दोनों प्रकार के कर्तव्य सामंजस्य की पूर्ण शक्ति है जिससे प्राणी लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की सुख शांति प्राप्त करने में समर्थ होता है।
सामाजिक सर्वत्र उन्नति हेतु प्राकृतिक गुणों के अनुसार कर्मों के आधार पर ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र चार वर्णों की व्यवस्था की गई है। इस जन्म में जीव प्रधान रूप से जो कार्य करता है उसके संस्कार जीव के चित् मैं अंकित हो जाते हैं। उन्ही संस्कारों के अनुरूप शरीर धारण कर अग्रिम जन्म लेता है और उन संस्कारों के अनुसार ही उसकी आसक्ति या कर्मों में स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। मीमांसा का सिद्धांत है--- कर्म बीजम संस्कार: और तद निमिता सृष्टि: अर्थात संस्कार ही कर्म का बीज है और वही सृष्टि का कारण है। अतः किसी जाति या वर्ण में किसी जीव का जन्म ही इस बात का प्रमाण है कि उसके संस्कार उसी वर्ण या जाति के संस्कारों के अनुरूप है। यदि किसी मनुष्य को उसके स्वाभाविक संस्कारों से भिन्न प्रकृति वाले कर्मों में लगाया जाए तो उसे समझने और करने में उसको विशेष मानसिक और शारीरिक परिश्रम करने से उसकी शक्ति का व्यर्थ हांस होगा। इस प्रकार शक्ति के हृस् से समाज को बचाने के लिए ही तथा प्राकृतिक संस्कारों के अनुरूप जगत कार्य का निर्वाह कर सभी अपने आध्यात्मिक मार्ग को प्रशस्त कर सके इसी उद्देश्य से वर्णाश्रम संखला का निर्धारण किया गया और यही हिंदू जाति के चिर जीवी रहने का एक प्रधान कारण है। यजुर्वेद के 31 म अध्याय में समाज की एक महापुरुष के रूप में कल्पना कर वर्ण व्यवस्था का स्वरूप इस प्रकार वर्णित है
ब्राह्मणों अश्य मुखम आसीत बाहूं राजन्य : कृत:।
उ रु तदस्य मद वैश्य: पदा ध्याम शूद्रों अजायत। "यजुर्वेद 31/11"
जिस प्रकार मानव शरीर की कोई भी इंद्रिय केवल अपने लिए काम नहीं करती वह ज्ञान और कर्म के रूप में जो भी भोग करती है या संपादन करती है उसका त्याग संपूर्ण देह के लिए कर उसका पोषण करती है ठीक उसी प्रकार समाज रूपी महापुरुष का कार्य निर्विघ्न रुप से संपादित होता रहे उसके लिए आवश्यक है-- समाज के हित की कामना से , सामंजस्य पूर्ण ढंग से, चारों वर्ण द्वारा स्व कर्तव्यों का निर्वाह करना। परस्पर त्याग और सामंजस्य पूर्ण व्यवहार ही हिंदू संस्कृति का आधार रहा है। दान तथा अन्य से तीनों आंसुओं का पालन करने के कारण ही अपने त्यागमयी भावना से गृहस्थ आश्रम सभी आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है
यसमात त्रयो अपी आरमिणों दानेन अन्नैन च अनवहम।
गृहस्थ नैव धारयंते तस्मान जेष्ठा रमो ग्रही । (मनुस्मृति 378)
जिस प्रकार सभी अंगों की एक प्राणिता में ही इस देह का सौंदर्य ,माधुर्य ,वैभव और आनंद प्रकाशित होता है उसी प्रकार यह मानव समाज भी भगवान का विराट विश्व मय शरीर है। इसमें प्रत्येक वर्ण द्वारा अपनी अपनी शक्ति का विकास करते हुए सारे समाज की सेवा करना और उसके द्वारा सर्वांतर्यामी भगवान की सेवा करना ही मानव जीवन दर्शन का आदर्श कहा जा सकता है। एक मन हो कर अखंड मानवता के आदर्श की रक्षा करना है भारतीय जीवन दर्शन का लक्ष्य है।
धर्म
भारतीय जीवन दर्शन का मूल आधार धर्म ही कहा जा सकता है। मानवता का परिचय मानव धर्म से ही होता है शरीर की आकृति से नहीं । प्रश्न यह उठता है की धर्म क्या है? "धयते अनैन इत धर्म:" तथा "धारयति इति धर्म ": अर्थात जो समाज तथा व्यक्ति को धारण करें वही धर्म है। हमारा समाज सदा से ही धर्म प्राण समाज रहा है। आचार्य मनु ने धर्म के 10 लक्षण बताएं हैं धृतिः, क्षमा, दमन असतेयम शौचम इंद्रिय निग्रह:
धी : विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्। (मनुस्मृति)
धर्म के इन 10 लक्षणों से युक्त मनुष्य को ही मनु ने मानव कहा है संस्कृत ग्रंथों में कहा गया है की ---धर्म के अनुसार चलो। परमेश्वर के सम्मुख नम्र रहो। यह कल्याणमय है मन की दास्तां से मुक्ति पाओ यही सच्ची मुक्ति है। कौन सा कर्म कब किसके लिए धर्म है यह जानने का साधन शास्त्र ही हैं। चउदना लक्षणे धर्मा: अर्थात शास्त्र प्रेरित कर्म ही धर्म है। प्रत्येक वर्ण और आश्र मी के कर्म इन शास्त्रों द्वारा निर्धारित है अपने धर्म का अनुसरण करके ही मानव उन्नति के सर्वोच्च शिखर तक पहुंच कर परम तत्व को प्राप्त कर सकता है श्रीमद भगवत गीता मैं भगवान कृष्ण ने स्वयं कहां है
स्वधर्मे निधन श्रेयः पर धर्मो भयावहः
नारद भक्ति सूत्र मैं शास्त्र सम्मत शिक्षा को अमोघ बताया है
महत् संगस्तु दुर्लभो अगमनो अमोघःच।
अर्थात शास्त्र विधान के आधार पर जीवन मुक्त महात्माओं द्वारा दी गई मानवता की शिक्षा अमोघ है वह कभी विफल नहीं हो सकती । श्रीमद् भागवत में भी मानव का जीवन आदर्श धर्म को ही बताया गया है
सर्वभूतेषु य : पश्यःद, भगवत, भावम आत्मन:।
भूतानि भगवतयातमनयेष भागवत उत्तम :। "श्रीमद् भागवत 11 /45"
अर्थात प्राणी मात्र में भागवत बुद्धि रखकर उस विराट भगवान को सर्वत्र देखना है मानवता का सत्य स्वरूप है। ह्रदय की सुंदरता ही सच्ची मानवता है। अपने हृदय की वृत्ति को सुंदर बनाने हेतु आंतरिक विकारों की निवृत्ति का मार्ग धर्म द्वारा ही प्रशस्त किया जाता है। इसीलिए वेदों में मन को कल्याणकारी विचारों से युक्त बनाने की प्रार्थना की गई है
तन में मन शिव संकल्पम अस्तु और तभी मानव सर्व भूत हिते रत: की भावना से परिपूर्ण होकर अपने जीवन आदर्श को इन भावनाओं से पर पोषित कर सकता है
सर्वे भवंतु सुखिन सर्वे संतु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मां कश्चित् दुख भाग भवेत्।
अतः भारतीय जीवन दर्शन का प्रमुख लक्ष्य धर्म का पालन करना ही है और धर्म पालन के अभाव में मनुष्य पशु सदस्य कहा गया है
आहार निद्रा भय मैंथुनम च
सामान्यमेतत् पशुभी नाराणाम,
धर्मो ही तेषाम अधिक विशेषो
धर्मेन हीना पशुभीः समाना:।
वस्तुतः भारतीय धर्म और दर्शन एक दूसरे से पृथक ही नहीं है अपितु एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। मैक्स मूलर महोदय ने भी भारतीय जीवन दर्शन की प्रशंसा करते हुए कहा था--" यदि मुझसे एक शब्द में भारतीय जीवन की विशेषता बताने को कहा जाए तो मैं यही कहूंगा की बहू पारलौकिक है" वशिष्ठ धर्म सूत्र के अनुसार धर्म का शाश्वत संदेश इस प्रकार है
धर्मं चरत मां अधर्मम सत्यम वदत मां अनृतम
दीर्घम पश्यत मां हस्व परम पश्यत मां परम। वशिष्ठ धर्मसूत्रा
जो व्यक्ति इस प्रकार धर्म का आचरण करता है तो धर्म भी उसकी रक्षा करता ह------- धर्मो रक्षति रक्षत:।
सदाचरण
भारतीय जीवन दर्शन का मूल आधार है सदाचरण
परमोः परमो धर्मा सर्वेर्षम इति निश्चयः ।
हिनाचार परीतातमा प्रेतय चेह च नशयति , वशिष्ठ धर्मसूत्र 6/1
सदाचरण ही सर्वश्रेष्ठ परम धर्म है कोई व्यक्ति वेद शास्त्रों के ज्ञान में पारंगत होने पर भी यदि आचरण से भ्रष्ट है तो संपूर्ण धर्म ज्ञान उसे कोई लाभ या सुख नहीं पहुंचा सकते संपूर्ण ज्ञान का उपयोग वस्तुतः उस ज्ञान को आचरण में परिणत करना ही है। इसी कारण भारत का दार्शनिक कोरे चिंतन में समय नहीं नष्ट करता। जीवन को अपने दर्शन के अनुरूप ढालता है और आदर्श प्रस्तुत करता है। दर्शन और आचार शास्त्र या नीतिशास्त्र का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध रहा है और यह संबंध ठीक वैसा ही है जैसा कि--- विज्ञान और प्रयोग का, ज्ञान और योग का---एक ओर धर्म का मूल आधार है नीति और दूसरी ओर नीति,
दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है।
वसुधा आचरण ही वह कसौटी है जिस पर व्यक्ति की योग्यता और अर्हता का आकलन होता है चरित्रहीन विद्वान की विद्वता फीकी पड़ जाती है और शीलहीना सुंदरी का सौंदर्य केवल निम्न कोटि के विचारों को उत्तेजित करता है इसीलिए आचरण की पवित्रता को सर्वोपरि बताया गया है आचरण के अभाव में महर्षि की तपस्या भी व्यर्थ हो जाती है और दूसरी ओर सदाचरण संपन्न निम्न कोटि का व्यक्ति भी ईश्वर के तत्व का दर्शन कर सकता है और उच्च वर्ग के व्यक्ति को शिक्षा दे सकता है भारतीय वर्ण व्यवस्था भी अपने मूल रूप में आचरण के आधार पर ही निर्धारित की गई थी आचरण से च्युत क्व्यक्ति को समाज में सामाजिक जीवन व्यतीत करने का अधिकार नहीं है प्रायश्चित कार्य के पीछे आचरण सुधार की भावना ही प्रमुख थी समस्त आचरण का साधन शरीर ही है अतः सर्वप्रथम शारीरिक शुद्धि को महत्व दिया गया है
स्नान मूला: क्रिया: सर्वा: श्रुति स्मृति उदिता नृप्णामं
तस्मात् स्नानां निषे वेद श्री पुष्टि आरोग्य वर्धनम
समस्त दैनिक कार्य शास्त्र सम्मत रुप से करने पर बल दिया गया है
दृष्टि पुतम नय सेद, पादमं वस्त्र पूतमं जलम पवेत
शास्त्र पूतं बदेत वाक्यमं मनः पूतमं समाचरेत।
इसके साथ ही प्रेम पूर्वक व सहयोग पूर्वक साथ साथ कार्य करने की प्रेरणा दी है
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम,
देवा भागम यथा पूर्वे सतजनानाम उपासते
प्रतिदिन बड़ों का अभिवादन करना तथा वृद्धों की सेवा करना भारतीय जीवन का आदर्श रहा है ऐसा करने से व्यक्ति की आयु विद्या यश और बल में वृद्धि होती है
अभिवादन शीलस्य नित्यम वृद्धोंपसेविन:
चत्वारि तस्य वर्धन ते आयुर विद्या यशो बलम,।
संस्कारों के लिए शिक्षा आवश्यक है इसीलिए सभी को शिक्षित होना आवश्यक कहा गया है
माता शत्रुः पिता बैरी यन बालों न पाठीत:
न शोभते सभा मध्य हंस मध्य बको यथा
शिक्षित और संस्कारवान होने पर व्यक्ति मेरे तेरे की संकुचित भावना से ऊपर उठ जाता है
अयम निज: परोवेति गणना लघु चेतसाम,
उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुंबकम,।
ऐसे उदार चरित्र मना लोगों के लिए भला संपूर्ण पृथ्वी कुटुंब के समान क्यों ना हो? क्योंकि परोपकाराय सताम विभूतिय : यही हमारे जीवन दर्शन का आदर्श है यही मूल मंत्र है
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचन दु वयम
परोपकार : पुण्याय पापाय पर पीड़नम
भारतीय जीवन दर्शन का एक और महा मंत्र है सत्य व मीठा बोलना
प्रिय वाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यंति जनतव:
तस्मात् तदैव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।
शक्ति स्वरूपा नारी का सम्मान तथा उसका स्थान श्रेष्ठतम बताया गया है
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:
यत्रैताशतू ना पूज्यंते सर्वा तंत्र अफला क्रियाः
केवल नारी और वृद्धजन ही पूजित नहीं हैं अपितु ज्ञानवान व आचार सील युवा भी पूजनीय है
यो वै युवा अप धीयानस्तम देवा स्था वीरम विदुः ।
श्रीमद्भागवत में एक सीधे सरल छोटे से वाक्य में संपूर्ण आचरण की सीमाओं को मानो अपने में समेट लिया है
आतमनः प्रतिकूलानी परेशां ना समाचरेत,
अर्थात दूसरों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करें जैसा आप दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं किस प्रकार हम पाते हैं कि संस्कृत वांग्मय में निहित जीवन दर्शन--- सत्य अहिंसा दान परोपकार अस्तेय दया आदि कल्याण परक अनेक आदर्शों से परिपूर्ण है इस जीवन दर्शन में जीवन केवल जी लेने का नाम नहीं है अपितु यह कर्म निष्ठ जीवन है सदाचरण का जीवन है यह आध्यात्मिक जीवन की तैयारी है इसीलिए भारतीय जीवन दर्शन सदा से ही संपूर्ण विश्व के लिए प्रेरणा स्रोत एवं आकर्षण का केंद्र रहा है
एतद् देश प्रसूतस्य सकासाद अगृ जनमनः
स्व स्व चरित्रम शिक्षैरन, पृथ्वियां सर्व मानवा :
ह
क्रमशः पार्ट 2